आधुनिक सन्दर्भ में भारतीय ज्ञान परंपरा में उपादेयता

Mohit Rawal
8 min readAug 30, 2023

Its an article about utility of Indian Knowledge Systems in modern context.

यह भारत भूमि महान है। इस भूमि की ज्ञान की अविरल धारा ने संपूर्ण जगत को सींचा है। भारतीय ज्ञान परम्परा पुरातन युग से बहुत समृद्घ रहीं है। आधुनिक युग में प्रचलित भारतीय ज्ञान और विदेशों से आ रहीं तथा कथित नवीन खोज जो हमारे ग्रंथों में पूर्व से ही उल्लिखित है, भारतीय ज्ञान परम्परा के समृद्धशाली होने का प्रमाण है।

बीती कुछ शताब्दियों से इस भूमि को इस प्रकार महसूस करवाया जाता रहा है कि यहां कभी ज्ञान अंकुरित ही नहीं हुआ। सहस्त्र वर्ष की दासता में हमारी सहस्त्रो पीढ़ियों ने पीड़ा को झेलते हुए इस ज्ञान को संजोए रखा। परंतु समय के साथ इसकी उपादेयता क्षीण होती रहीं। इसीलिए समय है भारत के ज्ञान वृक्ष की छाया में पोषित हो रहे इस विश्व को बताने का कि भारत का गुरुत्व अभी भी कायम है। भारत का ज्ञान गंगा जल के समान है, जो निर्मल और अविराम है।

मैकॉले के मानस पुत्र प्रश्न उठाते हैं कि भारत ने विश्व को क्या दिया और यह बोध कराते हैं कि पाश्चात्य देशों ने ही भारत को सब कुछ दिया है। भारत ने विश्व को ज्ञान प्रणाली दी, विज्ञान के अनेक आयाम दिए। यह भारतीय ज्ञान प्रणाली के बारे में चिंता और चिंतन करने का समय है। इसकी उपादेयता को जनमानस तक पहुँचने के लिए पुरुषार्थ की आवश्यकता है, क्योंकि यह बात केवल कुछ पुरातन ज्ञान के बारे में नहीं है, यह बुद्धि, आर्थिक सुरक्षा और राष्ट्रीय गौरव के बारे में है, साथ ही यह बात भी विस्मृत ना हो कि भारतीय ज्ञान परंपरा सत्य का अनुमोदन करती है।

आधुनिक युग में डिप्रेशन, स्ट्रेस, इंजाइटी व मेंटल ट्रॉमा जैसे शब्दों का प्रयोग अत्याधिक मात्रा में बढ़ गया हैं, आज की युवा पीढ़ी पाश्चात्य जगत की जीवनशैली को अपनाने के कारण इन शब्दों को भी अपने जीवन में समाहित कर चुकी हैं। परंतु पुरातन भारत में इस प्रकार की मनोवृत्ति देखने को नहीं मिलती, इसका कारण रहा भारतीय दर्शन। उदाहरणार्थ अद्वैत ज्ञान परंपरा के अनुसार-

“यह संपूर्ण जगत ब्रह्म की ही प्रतिकृति है। एक मात्र चेतन, नित्य और मूल सत्ता जो अखंड, अनंत, अनादि, निर्गुण और सत्, चित् तथा आनंद से युक्त है। प्रत्येक तत्त्व और प्रत्येक वस्तु के कण-कण में ब्रह्म की व्याप्ति मानी जाती है, और कहा जाता है कि अंत या नाश होने पर सबका इसी ब्रह्म में लय होता है।”

इसे ही हम एकात्म की भावना जानते है, जो संपूर्ण विश्व को एक सूत्र में बांधने कि क्षमता रखती है। जब कोई व्यक्ति इस सत्य को जान लेता है तो अध्यात्म से जुड़े रहने के कारण आधुनिक पाश्चात्य अधोगति में नहीं पड़ता। इससे हमें भारतीय ज्ञान परंपरा कि उपादेयता के एक आयाम का ज्ञान होता है।

यह सिर्फ एक दर्शन का एक उदहारण है, संपूर्ण भारतीय ज्ञान प्रणाली ऐसे अनंत सत्य से पूर्ण है, जो पूर्णमद: पूर्णमिदं की बात करती हैं। यह वह प्रणाली हैं जिसका अस्तित्व यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ है।

भारत ने विश्व को संस्कृति दी जब 5000 साल पहले कई सभ्यताएं केवल खानाबदोश वनवासी थीं, तब भारतवर्ष में सिंधु घाटी सभ्यता में हड़प्पा संस्कृति का जन्म हुआ। विश्व का पहला विश्वविद्यालय तक्षशिला में 700 ईसा पूर्व में स्थापित किया, जिसमें दुनिया भर के 10,500 से अधिक छात्रों ने 60 से अधिक विषयों का अध्ययन किया। चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में निर्मित नालंदा विश्वविद्यालय शिक्षा के क्षेत्र में प्राचीन भारत की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक था।

भारतवर्ष की भूमि ने हीं विश्व को देव भाषा संस्कृत दी जो कि विश्व की सबसे शुद्धतम एवं उपयुक्त भाषा है।

संस्कृत सभी यूरोपीय भाषाओं की जननी है। कंप्यूटर सॉफ्टवेयर के लिए संस्कृत सबसे उपयुक्त भाषा है।

- फोर्ब्स पत्रिका की रिपोर्ट, जुलाई 1987

संस्कृत भाषा कि उपयोगिता को सिद्ध करने कि आवश्यकता भी नहीं है, आज संपूर्ण विश्व में इसकी उपादेयता जानने के लिए शोध एवं अनुसंधान किए जा रहे है।

भारतीय सभ्यता ने ज्ञान को बहुत महत्व दिया है, जैसा कि इसके आश्चर्यजनक रूप से विशाल बौद्धिक ग्रंथों, दुनिया में पांडुलिपियों के सबसे बड़े संग्रह और विभिन्न प्रकार के ग्रंथों, विचारकों और विद्यालयों की अच्छी तरह से प्रलेखित विरासत से पता चलता है।

भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्‌गीता (4.33,37–38) में अर्जुन को मार्गदर्शन दिया कि ज्ञान आत्म-शुद्धि और मुक्ति का सबसे बड़ा साधन है। भारत में ज्ञान का एक लंबा इतिहास है जो गंगा नदी की तरह निरंतर जारी है। वेदों-उपनिषदों से लेकर श्री अरबिंदो तक, ज्ञान सभी शोधों का केंद्र बिंदु रहा है। भारतीय ज्ञान प्रणालियों की भारतीय संस्कृति, दर्शन और आध्यात्मिकता में एक मजबूत नींव है और यह हजारों वर्षों से विकसित हुई है। आयुर्वेद, योग, वेदांत और वैदिक विज्ञान सहित ये ज्ञान प्रणालियाँ आधुनिक दुनिया में अभी भी उपयोगी हैं। भारतवर्ष ने विश्व को आयुर्वेद दिया। आयुर्वेद मनुष्यों के लिए ज्ञात चिकित्सा का सबसे पहला स्कूल है। चिकित्सा के जनक चरक ने 2500 साल पहले आयुर्वेद को समेकित किया। आज आयुर्वेद तेजी से हमारी सभ्यता में अपना सर्वोच्च स्थान हासिल कर रहा है। आधुनिक युग में आयुर्वेद का उदाहरण हमने कोरोना महामारी में देखा। आयुर्वेद के नाम से ज्ञात पारंपरिक भारतीय चिकित्सा प्रणाली में कल्याण के लिए व्यापक दृष्टिकोण पर जोर दिया गया है। इस समय की दुनिया में जहां जीवन-संबंधी स्थितियां बढ़ रही हैं, यह प्राकृतिक सुधार के तरीकों, वैयक्तिकृत उपचारों और वनों की रोकथाम और स्वास्थ्य के संरक्षण पर ध्यान देने की बात करता है। सुश्रुत शल्य चिकित्सा के जनक हैं। 2600 साल पहले उन्होंने और अपने समय के स्वास्थ्य वैज्ञानिकों ने सिजेरियन, मोतियाबिंद, कृत्रिम अंग, फ्रैक्चर, मूत्र पथरी और यहां तक कि प्लास्टिक सर्जरी और मस्तिष्क की सर्जरी जैसी जटिल सर्जरी की। संज्ञाहरण का उपयोग प्राचीन भारत में अच्छी तरह से जाना जाता था। 125 से अधिक सर्जिकल उपकरणों का इस्तेमाल किया गया। कई ग्रंथों में एनाटॉमी, फिजियोलॉजी, एटियलजि, भ्रूणविज्ञान, पाचन, चयापचय, आनुवंशिकी और प्रतिरक्षा का गहरा ज्ञान भी मिलता है।

भारतीय ज्ञान परंपरा का योग अभिन्न अंग है। योग आंतरिक, शारीरिक और आध्यात्मिक कल्याण के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण है जिसकी जड़ें प्राचीन भारत में हैं। इसमें आसन, प्राणायाम (सांस नियंत्रण) और चिंतन जैसे तरीके शामिल हैं जो तनाव को कम करने, आंतरिक स्वास्थ्य को बढ़ावा देने और सामान्य हृदयता को बढ़ाने में मददगार साबित हुए हैं। ये तरीके वर्तमान समय की पूर्व-निर्धारित, तनावपूर्ण अत्याधुनिक वास्तविकता में विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं।

भारतीय ज्ञान प्रणालियों ने “वसुधैव कुटुंबकम” (दुनिया एक परिवार है) के विचार से सभी प्राणियों की परस्पर निर्भरता पर जोर दिया। पर्यावरणीय विषय और प्राकृतिक संसाधन संरक्षण और संरक्षण की मांग को ध्यान में रखते हुए, ये सिद्धांत अत्यधिक महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं।

वास्तविकता की प्रकृति में आध्यात्मिक विकास एवं चैतन्यता वेदांत जैसी भारतीय ज्ञान प्रणालियों द्वारा प्रदान किए जाते हैं, जो वेदों के नाम से जानी जाने वाली प्राचीन पुस्तकों पर आधारित एक दार्शनिक स्वरूप है।

विज्ञान ऐतिहासिक रूप से भारतीय ज्ञान प्रणालियों द्वारा गणित, खगोल विज्ञान और धातु विज्ञान जैसे विषयों में उन्नत हुआ है। शून्य, दशमलव प्रणाली और त्रिकोणमिति जैसी प्राचीन भारतीय सामान्यताओं का उपयोग अभी भी वर्तमान ज्ञान और प्रौद्योगिकी में बड़े पैमाने पर किया जाता है, जो आविष्कार और उन्नति को बढ़ावा देने में भारतीय ज्ञान प्रणालियों के महत्व को प्रदर्शित करता है।

हाल ही में श्री एस. सोमनाथ, अंतरिक्ष विभाग के सचिव और अंतरिक्ष आयोग के अध्यक्ष, ने कहा

“वैमानिकी, समय की अवधारणा, ब्रह्मांड की संरचना, गणित, धातु विज्ञान और विमानन के वैज्ञानिक सिद्धांत सबसे पहले वेदों में पाए गए थे|”

इससे यह स्पष्ट होता है की वैज्ञानिक भारतीय ज्ञान परंपरा कि उपादेयता से अवगत हो रहे है।

आर्थिक इतिहासकार एंगस मैडिसन के अनुसार, 1 ईस्वी से 1600 तक भारतीय उपमहाद्वीप दुनिया का सबसे अधिक उत्पादक क्षेत्र था। भारत के खगोलीय गणना आधुनिक युग से भी काफी विकसित थी। भास्कराचार्य ने खगोलविद स्मार्ट से सैकड़ों वर्ष पहले पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा करने में लगने वाले समय की गणना की थी। पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा करने में लगने वाला समय 365.258756484 दिन (पांचवीं शताब्दी)।

गणित में भारतवर्ष का परचम पुरातन काल से ही लहरा रहा है। “पाई” के मान की गणना सबसे पहले बुधायन ने की थी, और उन्होंने उस अवधारणा को भी समझाया जिसे पाइथागोरस प्रमेय के रूप में जाना जाता है। इसकी खोज उन्होंने यूरोपीय गणितज्ञों से बहुत पहले छठी शताब्दी में की थी। स्थान मान प्रणाली, दशमलव प्रणाली भारत में 100 ईसा पूर्व में विकसित की गई थी।

वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा है,

“हम भारतीयों के बहुत ऋणी हैं, जिन्होंने हमें गिनना सिखाया, जिसके बिना कोई सार्थक वैज्ञानिक खोज नहीं हो सकती थी।”

(We owe a lot to Indian who taught us how to count without which no worthwhile scientific Discovery could have been done.)

पाश्चात जगत के वैज्ञानिक के कथन से यह स्पष्ट होता है कि भारतवर्ष का योगदान सदैव ही अमूल्य रहा है औरआधुनिक सन्दर्भ में इसकी उपादेयता सदैव अक्षुण्ण रहेगी।

भारत ने संख्या प्रणाली का आविष्कार किया। शून्य से अनंत तक की अवधारणा दी। बीजगणित, त्रिकोणमिति और कलन कि उत्पत्ति भी भारत से हुई 11वीं शताब्दी में द्विघात समीकरण (Quadratic equation) श्रीधराचार्य द्वारा बनाए गए थे। यूनानियों और रोमनों द्वारा उपयोग की जाने वाली सबसे बड़ी संख्या 106 थी, जबकि हिंदुओं ने वैदिक काल के दौरान 5000 ईसा पूर्व में विशिष्ट नामों के साथ 1⁰⁵³ जितनी बड़ी संख्या का उपयोग किया था।

सिंचाई के लिए सबसे पहला जलाशय और बांध सौराष्ट्र में बनाया गया था। चंद्रगुप्त मौर्य के समय रैवतका की पहाड़ियों पर ‘सुदर्शन’ नामक एक सुंदर झील का निर्माण किया गया था। जो संपूर्ण विश्व के लिए एक उदहारण रहा।

जेमोलॉजिकल इंस्टीट्यूट ऑफ अमेरिका के अनुसार, 1896 तक, भारत दुनिया के लिए हीरे का एकमात्र स्रोत था। संयुक्त राज्य अमेरिका स्थित IEEE द्वारा विश्व वैज्ञानिक समुदाय में सिद्ध कर दिया कि बेतार संचार प्रकाशीय तंतु (optical fiber) के प्रणेता प्रोफेसर जगदीश बोस थे न कि मारकोनी।

भारतीय ज्ञान परंपरा में मंदिर वास्तु शैली भी प्रमुख स्थान रखती है। भारतीय मंदिर वास्तुकला भी आधुनिक युग के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं है। भारत के कई मंदिर वास्तुशिल्प महत्वाकांक्षा के आश्चर्यजनक उदहारण हैं, और अधिकांश जटिल नक्काशी और प्रतीकों से सजाए गए हैं। उदहारण के लिए ऐरावतेश्वर मंदिर दारासुरम शहर में द्रविड़ वास्तुकला का मंदिर है, जो शिव को समर्पित है। पत्थर के मंदिर में एक रथ संरचना शामिल है, और इसमें इंद्र, अग्नि, वरुण, ब्रह्मा, सूर्य, विष्णु जैसे प्रमुख वैदिक और पौराणिक देवता शामिल हैं। बृहदेश्वर मंदिर, जो शिव को समर्पित है, जो भारत के तमिलनाडु राज्य के तंजावुर में स्थित है। इसे राजराजेश्वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है, यह भारत के सबसे बड़े मंदिरों में से एक है और चोल काल के दौरान तमिल वास्तुकला का एक उदाहरण है। तमिलनाडु में महाबलीपुरम के गुफा मंदिरों में समृद्ध सजावट का उपयोग किया गया है, जो सीधे चट्टानों में उकेरी गई है। ऐसे अनंत उदहारण हमारे भारतवर्ष कि ज्ञान भूमि के अलंकरण है, जो आधुनिक युग के विज्ञान से भी परे है और समस्त वास्तुकला प्रेमियों के लिए शोध का विषय है।

हालांकि भारत की आधुनिक छवियां अक्सर गरीबी और विकास की कमी दिखाती हैं, 17वीं शताब्दी की शुरुआत में ब्रिटिश आक्रमण के समय तक भारत पृथ्वी पर सबसे अमीर देश था जो भारत कि अखंड ज्ञान परंपरा के कारण ही था। क्रिस्टोफर कोलंबस भारत के धन से आकर्षित थे।

इस प्रकार हमारे भारत वर्ष ने विश्व को अनेक प्रकार से योगदान देकर लाभान्वित किया है। भारत ने ही विश्व को बौद्ध, जैन और सिख पंथ दिए। भारत ने विश्व को गुरु शिष्य परम्परा दी जिसके माध्यम से वर्षों तक अर्जित ज्ञान को आत्मसात और विश्लेषण कर नए ज्ञान को संश्लेषित किया गया।

निष्कर्षतः, भारतीय ज्ञान प्रणाली आज के परिदृश्य में भी लागू है, जो तनाव प्रबंधन, स्थिरता आदि जैसे मुद्दों से निपटने के लिए व्यावहारिक सुझाव देती है। यह ज्ञान का एक विशाल भंडार प्रदान करती है जिसका उपयोग लोगों, समुदायों और मानवता को आगे बढ़ाने के लिए किया जा सकता है।

अब समय है भारत के द्वारा विश्व को दिए गए ज्ञान को संजो कर इसका संवर्धन किया जाए और भारतवर्ष के जनता को संस्कृति, पहचान और प्राप्त ज्ञान से जोड़ा जाए। तब ही इसकी उपादेयता सिध्द होगी।

अब यह हम सभी का कर्त्तव्य बनता है कि भारत वर्ष की इस अनमोल धरोहर, ज्ञान को संवर्धित करके रखे जिससे कि विश्व का कल्याण हो सके और आने वाली पीढ़ी भारत को हीन दृष्टि से न देख कर गौरवपूर्ण दृष्टि से देखे।

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Mohit Rawal

The Occasional Writer. Write about those topic which comes from inner self. Ig @_mohit.rawal_